Monday 27 August 2018

๐Ÿ™๐Ÿ™เคฎंเค—เคฒเคตाเคฐ เคต्เคฐเคค เค•ी เคช्เคฐाเคฎाเคฃिเค•-เคชौเคฐाเคฃिเค• เค•เคฅा๐Ÿ™๐Ÿ™


🎤 ऋषिनगर में केशवदत्त ब्राह्मण अपनी पत्नी अंजलि के साथ रहता था। केशवदत्त के घर में धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं थी। नगर में सभी केशवदत्त का सम्मान करते थे, लेकिन केशवदत्त संतान नहीं होने से बहुत चिंतित रहता था।
दोनों पति-पत्नी प्रति मंगलवार को हनुमानजी की पूजा करते थे। विधिवत मंगलवार का व्रत करते हुए कई वर्ष बीत गए। ब्राह्मण बहुत निराश हो गया, लेकिन उसने व्रत करना नहीं छोड़ा।
कुछ दिनों के बाद केशवदत्त हनुमानजी की पूजा करने के लिए जंगल में चला गया। उसकी पत्नी अंजलि घर में रहकर मंगलवार का व्रत करने लगी। दोनों पति-पत्नी पुत्र-प्राप्ति के लिए मंगलवार का विधिवत व्रत करने लगे। अंजलि ने अगले मंगलवार को व्रत किया लेकिन किसी कारणवश उस दिन अंजलि हनुमानजी को भोग नहीं लगा सकी और उस दिन वह सूर्यास्त के बाद भूखी ही सो गई।

अगले मंगलवार को हनुमानजी को भोग लगाए बिना उसने भोजन नहीं करने का प्रण कर लिया। छः दिन तक अंजलि भूखी-प्यासी रही। सातवें दिन मंगलवार को अंजलि ने हनुमानजी की पूजा की, लेकिन तभी भूख-प्यास के कारण अंजलि बेहोश हो गई।

हनुमानजी ने उसे स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा- ‘उठो पुत्री! मैं तुम्हारी पूजा-पाठ से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें सुंदर और सुयोग्य पुत्र होने का वर देता हूं।’ यह कहकर हनुमानजी अंतर्धान हो गए। तत्काल अंजलि ने उठकर हनुमानजी को भोग लगाया और स्वयं भोजन किया।

हनुमानजी की अनुकम्पा से अंजलि ने एक सुंदर शिशु को जन्म दिया। मंगलवार को जन्म लेने के कारण उस बच्चे का नाम मंगलप्रसाद रखा गया। कुछ दिनों बाद अंजलि का पति केशवदत्त भी घर लौट आया। उसने मंगल को देखा तो अंजलि से पूछा- ‘यह सुंदर बच्चा किसका है?’ अंजलि ने खुश होते हुए हनुमानजी के दर्शन देने और पुत्र प्राप्त होने का वरदान देने की सारी कथा सुना दी। लेकिन केशवदत्त को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। उसके मन में पता नहीं कैसे यह कलुषित विचार आ गया कि अंजलि ने उसके साथ विश्वासघात किया है। अपने पापों को छिपाने के लिए अंजलि झूठ  बोल रही है।

केशवदत्त ने उस बच्चे को मार डालने की योजना बनाई। एक दिन केशवदत स्नान के लिए कुएं पर गया। मंगल भी उसके साथ था। केशवदत्त ने मौका देखकर मंगल को कुएं में फेंक दिया और घर आकर बहाना बना दिया कि मंगल तो कुएं पर मेरे पास पहुंचा ही नहीं। केशवदत्त के इतने कहने के ठीक बाद मंगल दौड़ता हुआ घर लौट आया।

केशवदत्त मंगल को देखकर बुरी तरह हैरान हो उठा। उसी रात हनुमानजी ने केशवदत्त को स्वप्न में दर्शन देते हुए कहा- ‘तुम दोनों के मंगलवार के व्रत करने से प्रसन्न होकर, पुत्रजन्म का वर मैंने दिया था। फिर तुम अपनी पत्नी पर शक क्यों करते हो?

उसी समय केशवदत्त ने अंजलि को जगाकर उससे क्षमा मांगते हुए स्वप्न में हनुमानजी के दर्शन देने की सारी कहानी सुनाई। केशवदत्त ने अपने बेटे को हृदय से लगाकर बहुत प्यार किया। उस दिन के बाद सभी आनंदपूर्वक रहने लगे।

मंगलवार का विधिवत व्रत करने से केशवदत्त और उनके सभी कष्ट दूर हो गए।

👉 इस तरह जो स्त्री-पुरुष विधिवत मंगलवार का व्रत करके व्रतकथा सुनते हैं, हनुमानजी उनके सभी कष्ट दूर करके घर में धन-संपत्ति का भंडार भर देते हैं। शरीर के सभी रक्त विकार के रोग भी नष्ट हो जाते हैं।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏👏👏

*เค‡เคš्เค›ा เคฎृเคค्เคฏु : เคตाเคน เคฐे เคช्เคฐเคญु เคเค• เค•ो เคฎिเคฒी เคฌाเคฃों เค•ी เคถเคฏ्เคฏा เคคो เคฆूเคธเคฐे เค•ो เคญเค—เคตाเคจ เค•ी เค—ोเคฆ*

*इच्छा मृत्यु : वाह रे प्रभु एक को मिली बाणों की शय्या तो दूसरे को भगवान की गोद*
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जब रावण ने जटायु के दोनों पंख काट डाले, तो..
काल आया और जैसे ही काल आया, मौत आई तो..
गीधराज जटायु ने कहा -- खबरदार ! ऐ मौत !
आगे बढ़ने की कोशिश मत करना। मैं मौत को स्वीकार तो करूँगा; लेकिन तू मुझे तब तक नहीं छू सकती,
जब तक मैं सीता जी की सुधि प्रभु श्री राम को नहीं सुना देता।
ईमानदारी से बतायें, इच्छा मृत्यु हुई कि नहीं?
मरना चाहते हैं जटायु जी कि नहीं, जो..
मौत को ललकार रहे हैं और उन्हें मौत छू भी नहीं पा रही है ।
मौत तो मानों डर कर गिद्धराज के सामने खड़ी होकर कांप रही है।
गीधराज जटायु ने कहा --
मैं मौत से डरता नहीं हूँ । तुझे मैं स्वीकार करूँगा; लेकिन
मुझे तब तक स्पर्श नहीं करना, जब तक मेरे प्रभु श्री राम
न आ जायँ और मैं उन्हें सीताहरण की गाथा न सुना दूँ ।
मौत तब तक खड़ी रही, काँपती रही; लेकिन
आपको पता होना चाहिए, इच्छा मृत्यु का वरदान तो मैं मानता हूँ कि गीधराज जटायु को मिला।
किन्तु..
महाभारत के भीष्म पितामह जो महान तपस्वी थे,
नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे, 6 महीने तक बाणों की शय्या पर लेट करके मौत का इंतजार करते रहे । आँखों से आँसू गिरते थे। भगवान कृष्ण जब जाते थे तो मन ही मन हँसते थे;
क्योंकि सामाजिक मर्यादा के कारण वहिरंग दृष्टि से उचित नहीं था; लेकिन जब जाते थे तो भीष्म के कर्म को देखकर मन ही मन मुस्कराते थे और भीष्म पितामह भगवान कृष्ण को देखकर दहाड़ मारकर रोते थे।
कन्हैया! मैं कौन से पाप का परिणाम देख रहा हूँ कि आज बाणों की शय्या पर लेटा हूँ । भगवान कृष्ण
मन ही मन हँसते थे, वहिरंग दृष्टि से समझा देते थे भीष्म पितामह को; लेकिन याद रखना वह दृश्य महाभारत का है, जब भगवान श्री कृष्ण खड़े हुए हैं,
भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर लेटे हैं, आँखों में आँसू हैं भीष्म के, रो रहे हैं। भगवान मन ही मन मुसकरा रहे हैं।

रामायण का यह दृश्य है कि गीधराज जटायु भगवान की गोद रूपी शय्या पर लेटे हैं, भगवान रो रहे हैं और जटायु हँस रहे हैं । बोलो भाई, वहाँ महाभारत में भीष्म पितामह रो रहे हैं और भगवान कृष्ण हँस रहे हैं और रामायण में जटायु जी हँस रहे हैं और भगवान राम रो रहे हैं ।
बोलो, भिन्नता प्रतीत हो रही है कि नहीं?

अंत समय में जटायु को भगवान श्री राम की गोद की शय्या मिली; लेकिन भीषण पितामह को मरते समय बाणों की शय्या मिली। जटायु अपने कर्म के बल पर अंत समय में भगवान की गोद रूपी शय्या में प्राण त्याग रहा है,
राम जी की शरण में, राम जी की गोद में और बाणों पर लेटे लेटे भीष्म पितामह रो रहे हैं । ऐसा अंतर क्यों?

ऐसा अंतर इसलिए है कि भरे दरबार में भीष्म पितामह ने द्रौपदी की इज्जत को लुटते हुए देखा था, विरोध नहीं कर पाये थे । दुःशासन को ललकार देते, दुर्योधन को ललकार देते; लेकिन द्रौपदी रोती रही, बिलखती रही, चीखती रही, चिल्लाती रही; लेकिन भीष्म पितामह सिर झुकाये बैठे रहे।
नारी की रक्षा नहीं कर पाये, नारी का अपमान सहते रहे ।उसका परिणाम यह निकला कि इच्छा मृत्यु का वरदान पाने पर भी बाणों की शय्या मिली और गीधराज जटायु ने नारी का सम्मान किया, अपने प्राणों की आहुति दे दी.. तो मरते समय भगवान श्री राम की गोद की शय्या मिली।

यही अंतर है, इसीलिए भीष्म 6 महीने तक रोते रहे, तड़पते रहे; क्योंकि कर्म ऐसा किया था कि नारी का अपमान देखते रहे और जटायु ने ऐसा सत्कर्म किया कि नारी का अपमान नहीं सह पाये,
नारी के सम्मान के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।इसलिए
जल भरि नयन कहत रघुराई।
तात करम ते निज गति पाई।।

आज भगवान ने जटायु को अपना धाम दे दिया । तो.. जटायु को भगवान का धाम मिला, भगवान का रूप मिला और वे
भगवानमय बन गये। इस प्रकार जटायु चतुर्भुज रूप धारण करके भगवान के धाम को प्राप्त हुए ।

बोलिए भक्त और उनके भगवान की जय।

*जो दूसरों के साथ गलत होते देखकर भी आंखें मूंद लेते हैं उनकी गति भीष्म जैसी होती है और जो अपना परिणाम जानते हुए भी औरों के लिए संघर्ष करता है। उसका महात्म्य जटायु जैसा कीर्तिवान होता है*

🌹🙏 जय जय बजरंग बली🙏🌹
🌲शुभ प्रभात वंदन अभिनंदन जी 🌲
# शुभ एवं मंगलमय हो मंगलवार #
आपकी और आपके परिवारजनों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हों, श्री हनुमान जी से मेरी यही कामना है. !!!  ऊँ श्री हनुमते नमः  !!!

Thursday 23 August 2018

✍เคธเคฐ्เคตเคช्เคฐเคฅเคฎ เค•िเคธเคจे เคฌांเคงी เคฐाเค–ी เค•िเคธ เค•ो เค”เคฐ เค•्เคฏों ??


👉लक्ष्मी जी ने सर्वप्रथम बलि को बांधी थी।
ये बात हैं जब की
जब दानबेन्द्र राजा बलि अश्वमेध यज्ञ करा रहें थे
तब नारायण ने राजा बलि को छलने के लिये वामन अवतार लिया और तीन पग में सब कुछ ले लिया
तब उसे भगवान ने पाताल लोक का राज्य रहने के लिये दें दिया
तब उसने प्रभु से कहा की कोई बात नहीँ मैं रहने के लिये तैयार हूँ
पर मेरी भी एक शर्त होगी
भगवान अपने भक्तो की बात कभी टाल नहीँ सकते
उन्होने कहा ऐसे नहीँ प्रभु आप छलिया हो पहले मुझे वचन दें की जो मांगूँगा वो आप दोगे
नारायण ने कहा दूँगा दूँगा दूँगा
जब त्रिबाचा करा लिया तब बोले बलि
की मैं जब सोने जाऊँ तो जब उठूं तो जिधर भी नजर जाये उधर आपको ही देखूं
नारायण ने अपना माथा ठोका और बोले इसने तो मुझे पहरेदार बना दिया हैं ये सबकुछ हार के भी जीत गया है
पर कर भी क्या सकते थे वचन जो दें चुके थे
ऐसे होते होते काफी समय बीत गया
उधर बैकुंठ में लक्ष्मी जी को चिंता होने लगी नारायण के बिना
उधर नारद जी का आना हुआ
लक्ष्मी जी ने कहा नारद जी आप तो तीनों लोकों में घूमते हैं क्या नारायण को कहीँ देखा आपने
तब नारद जी बोले की पाताल लोक में हैं राजा बलि की पहरेदार बने हुये हैं
तब लक्ष्मी जी ने कहा मुझे आप ही राह दिखाये की कैसे मिलेंगे
तब नारद ने कहा आप राजा बलि को भाई बना लो और रक्षा का वचन लो और पहले तिर्बाचा करा लेना दक्षिणा में जो मांगुगी वो देंगे
और दक्षिणा में अपने नारायण को माँग लेना
लक्ष्मी जी सुन्दर स्त्री के भेष में रोते हुये पहुँची
बलि ने कहा क्यों रो रहीं हैं आप
तब लक्ष्मी जी बोली की मेरा कोई भाई नहीँ हैं इसलिए मैं दुखी हूँ
तब बलि बोले की तुम मेरी धरम की बहिन बन जाओ
तब लक्ष्मी ने तिर्बाचा कराया
और बोली मुझे आपका ये पहरेदार चाहिये
जब
ये माँगा
तो बलि पीटने लगे अपना माथा
और सोचा
धन्य हो माता पति आये सब कुछ लें गये और ये महारानी ऐसी आयीं की उन्हे भी लें गयीं
तब से ये रक्षाबन्धन शुरू हुआ था

और इसी लिये जब कलावा बाँधते समय मंत्र बोला जाता है

येन बद्धो राजा बलि दानबेन्द्रो महाबला तेन त्वाम प्रपद्यये रक्षे माचल माचल:

ये मंत्र है

रक्षा बन्धन अर्थात वह बन्धन जो हमें सुरक्षा प्रदान करे।

सुरक्षा किस से
हमारे आंतरिक और बाहरी शत्रुओं से रोग ऋण से।

👉  राखी का मान करें ।

👉 अपने भाई बहन के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना रखें।

🙏  श्री बाला जी सेवा समिति नोएडा 🙏

Sunday 19 August 2018

"เค‰เคฆ्เคงเคต-เค—ीเคคा" ๐ŸŒนเค•ुเค› เคฌिเคฒ्เค•ुเคฒ เคนเคŸ เค•े เคนै เคœเคฐूเคฐ เคธे เคชเฅे ๐ŸŒน

उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।
जब कृष्ण अपने अवतार काल को पूर्ण कर गौलोक जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा-
"प्रिय उद्धव मेरे इस 'अवतार काल' में अनेक लोगों ने मुझसे वरदान प्राप्त किए, किन्तु तुमने कभी कुछ नहीं माँगा! अब कुछ माँगो, मैं तुम्हें देना चाहता हूँ।
तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी।
उद्धव ने इसके बाद भी स्वयं के लिए कुछ नहीं माँगा। वे तो केवल उन शंकाओं का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थीं।
उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-
"भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नहीं समझ पाया!
आपके 'उपदेश' अलग रहे, जबकि 'व्यक्तिगत जीवन' कुछ अलग तरह का दिखता रहा!
क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?"

श्री कृष्ण बोले-
“उद्धव मैंने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह "भगवद्गीता" थी।
आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तुम्हें उत्तर दूँगा, वह "उद्धव-गीता" के रूप में जानी जाएगी।
इसी कारण मैंने तुम्हें यह अवसर दिया है।
तुम बेझिझक पूछो।
उद्धव ने पूछना शुरू किया-

"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?"
कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, मदद करे।"
उद्धव-
"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे। आजाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।
कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया?
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा!
आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक सकते थे!
उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया, और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे!
   अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे!
इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!
   लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?
उसे एक आदमी घसीटकर हॉल में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है!
एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?
अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?
बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा?
क्या यही धर्म है?"
इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।
ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!
उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।
  भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।
यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।"

उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।
जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह-
उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!
क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर-
'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम'
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।
जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"
उद्धव बोले
"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई!
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"
कृष्ण मुस्कुराए-
"उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।
मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।
यही ईश्वर का धर्म है।"

"वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?"
उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!

तब कृष्ण बोले-
"उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो! धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?"

भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले-
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। 'प्रार्थना' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी 'पर-भावना' है।  मग़र जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि 'ईश्वर' के बिना पत्ता भी नहीं हिलता! तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।
गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।
सम्पूर्ण श्रीमद् भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक थे।
वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास हुआ, वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!
यह अनुभूति थी, शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!
तत-त्वम-असि!
अर्थात...
वह तुम ही हो।।
🙏हरे कृष्ण🙏

Wednesday 15 August 2018

๐Ÿ™๐Ÿ™เคชंเคšเคฎुเค–ी เคนเคจुเคฎाเคจ๐Ÿ™๐Ÿ™

🎤 सीता माँ को पाने हेतु राम और रावण की सेना के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था | रावण की पराजय निकट ही थी | तब रावण ने अपने मायावी भाई अहिरावन को याद किया जो माँ भवानी का परम भक्त होने के साथ साथ तंत्र मंत्र का का बड़ा ज्ञाता था | उसने अपनी माया से युद्ध में समस्त सेना को निद्रा में डाल दिया और श्री राम और लश्मन का अपहरण कर उन्हें पातळ लोक में बलि के लिए ले आया |
हनुमानजी का पंचमुखी रूप कुछ घंटे बाद जब माया का प्रभाव कम हुआ तब विभिसन्न ने यह पहचान लिया की यह कार्य अहिरावन का है और उसने हनुमान को श्री राम और लश्मन की सहायता करने के लिए पाताल लोक जाने को कहा | पाताल लोक के द्वार पर उन्हें उनका पुत्र मकरध्वज मिला और युद्ध में उसे हराने के बाद बंदक श्री राम और लश्मन से मिले |
वहा पांच दीपक पांच दिशाओ में मिले जो माँ भवानी के लिए अहिरावन में जलाये थे | इन पांचो दीपक को एक साथ बुझाने पर अहिरावन का वध हो जायेगा इसी कारण वश हनुमान जी पञ्च मुखी रूप धरा | उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिम्ह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख। इन पांच मुखों को धारण कर उन्होंने एक साथ सारे दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया | और फिर राम और लश्मन को मुक्त करवाया |
विष्णु कृपा से भी मिला हनुमान को पंचमुखी रूप
एक अन्य कथा के अनुसार विष्णु भगवान की कृपा से धरा था हनुमानजी ने पंचमुखी रूप :
इस कथा के अनुसार मरियल नाम का दानव एक बार विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र चुरा ले जाता है | हनुमानजी को जब यह पता चलता है तो वो संकल्प लेते है की वो पुनः चक्र प्राप्त कर के भगवान् विष्णु को सौफ देंगे | मरियल दानव इच्छाअनुसार रूप बदलने में माहिर था अत: विष्णु भगवान हनुमानजी को आशीर्वाद दिया, साथ ही इच्छानुसार वायुगमन की शक्ति के साथ गरुड़-मुख, भय उत्पन्न करने वाला नरसिम्ह-मुख तथा हयग्रीव एवं वराह मुख प्रदान किया। पार्वती जी ने उन्हें कमल पुष्प एवं यम-धर्मराज ने उन्हें पाश नामक अस्त्र प्रदान किया। यह आशीर्वाद एवं इन सबकी शक्तियों के साथ हनुमान जी मायिल पर विजय प्राप्त करने में सफल रहे। तभी से उनके इस पंचमुखी स्वरूप को भी मान्यता प्राप्त हुई।
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Friday 10 August 2018

๐ŸŽค < เคธुเคจ्เคฆเคฐเค•ांเคก เค•ा เคฎเคนเคค्เคต > ๐ŸŒธ๐ŸŒธ ๐ŸŒน

🔔🔔जय श्री सालासर बालाजी🔔🔔
🎤 < सुन्दरकांड का महत्व > 🌸🌸 🌹
👉🏼 कई शुभ अवसरों पर लोग श्रीरामचरित मानस के सुंदरकांड का पाठ अपने घरों में कराते हैं. कहा जाता है कि किसी भी शुभ काम की शुरूआत से पहले सुंदरकांड पाठ कराने से सभी कार्यों में सफलता मिलती है.
आखिर सुंदरकांड के पाठ को ज्योतिष शास्त्र में इतनी ज्यादा अहमियत क्यों दी जाती है और क्यों कहा जाता है कि हर इंसान को अपने जीवन में कभी ना कभी सुंदरकांड पाठ जरूर कराना चाहिए.
गौरतलब हैकि पूरी रामायण में सुंदरकांड को सबसे श्रेष्ठ कांड माना जाता है क्योंकि यह जीवन के सारे संकटों को दूर करता है इसलिए कहा जाता है कि हर इंसान को कभी ना कभी सुंदरकांड पाठ जरूर कराना चाहिए.चलिए हम आपको बताते हैं सुंदरकांड पाठ कराने से क्या लाभ होते हैं.
1- परेशानियों से मिलता है छुटकारा
जब किसी इंसान का जीवन परेशानियों से घिर जाता है तब किसी भी काम में सफलता नहीं मिलती है. इसकानतीजा यह होता है कि आत्मविश्वास में कमी आने लगती है. ऐसे में सुंदरकांड पाठ कराना चाहिए. इससेजीवन की इन तमाम परेशानियों से निजात मिलने लगती है.
2- कुंडली में मौजूूद दोष होते हैं दूर
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अगर किसी व्यक्ति की कुंडली में दोष है और वो अपने जीवन में विपरित परिस्थियों का सामना कर रहा है तो इससे मुक्ति पाने के लिए सुंदरकाड पाठ कराना फायदेमंद होता है.
3- आत्मविश्वास में होती है बढ़ोत्तरी
सुंदरकांड को आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति बढ़ानेवाला कांड बताया गया है. इसका पाठ कराने से व्यक्ति को मानसिक शांति मिलती है और किसी भी काम को पूरा करने के लिए आत्मविश्वास मिलता है.
4- मिलती है श्रीराम की कृपा
घर में सुंदरकांड पाठ कराने से हनुमान जी के साथ-साथ भगवान श्रीराम की भी विशेष कृपा प्राप्त होती है. जीवन की हर समस्या को दूर करने के लिए सुंदरकांड का पाठ एक श्रेष्ठ और सरल उपाय है.
5- जीत का दिलाता है भरोसा
सुदंरकांड एक भक्त की जीत का कांड है जो अपनी इच्छा शक्ति से इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है. सुंदरकांड में जीवन में सफल होने के महत्वपूर्ण सूत्र भी दिए गए हैं. श्रीरामचरित मानस का सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है जो श्रीराम के भक्त हनुमान की विजय का कांड है.
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