Wednesday 29 May 2019

*क्या महत्वपूर्ण है अच्छी सोच या दिखावा*

*क्या महत्वपूर्ण है अच्छी सोच या दिखावा*

👉 जैसे जैसे मेरी उम्र में वृद्धि होती गई, मुझे समझ आती गई कि अगर मैं Rs. 300 की घड़ी पहनूं या Rs. 30000 की, दोनों समय एक जैसा ही बताएंगी।

मेरे पास Rs. 300 का बैग हो या Rs. 30000 का, इसके अंदर के सामान में कोई परिवर्तन नहीं होंगा।

मैं 300 गज के मकान में रहूं या 3000 गज के मकान में, तन्हाई का एहसास एक जैसा ही होगा।

ब्रांडेड चीजें व्यापारिक दुनिया का सबसे बड़ा झूठ होती हैं, जिनका असल उद्देश्य तो अमीरों की जेब से पैसा निकालना होता है, लेकिन गरीब और मध्यम वर्ग लोग इससे बहुत ज्यादा प्रभावित होते हैं।

क्या यह आवश्यक है कि मैं रोजाना Mac'd या KFC में खाऊँ ताकि लोग यह न समझें कि मैं कंजूस हूँ?

क्या यह आवश्यक है कि मैं Gucci, Lacoste, Adidas या Nike का ही पहनूं ताकि High Status वाला कहलाया जाऊँ?

क्या यह आवश्यक है कि मैं अपनी हर बात में दो चार अंग्रेजी शब्द शामिल करूँ ताकि सभ्य कहलाऊं?

नहीं दोस्तों !!!

मेरे कपड़े तो आम दुकानों से खरीदे हुए होते हैं।

भुख लगे तो किसी ठेले से ले कर खाने में भी कोई अपमान नहीं समझता।

अपनी सीधी सादी भाषा मे बोलता हूँ।

मानव मूल की असली कीमत उसकी नैतिकता, व्यवहार, मेलजोल का तरीका, सहानुभूति और भाईचारा है, ना कि उसकी मौजुदा शक्ल और सूरत।

सूर्यास्त के समय एक बार सूर्य ने सबसे पूछा, मेरी अनुपस्थिति में मेरी जगह कौन कार्य करेगा? समस्त विश्व में सन्नाटा छा गया। किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तभी कोने से एक आवाज आई। दीये ने कहा - "मै हूं ना" मैं अपना पूरा प्रयास करुंगा।

आपकी सोच में ताकत और चमक होनी चाहिए। छोटा-बड़ा होने से फर्क नहीं पड़ता, सोच बड़ी होनी चाहिए। मन के भीतर एक दीप जलाईये और सदा मुस्कुराते रहिए।
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Monday 20 May 2019

केदारनाथ को क्यों कहते हैं ‘जागृत महादेव’ ?,

दो मिनट की ये कहानी रौंगटे खड़े कर देगी "

👉 एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता।

मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए।

आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया।

केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है।

वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की - कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये

। लेकिन वहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।

पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है।

और सभी जन वहा से चले गये। वह वही पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया।

लेकिन उसे विस्वास था अपने शिव पर कि वो जरुर कृपा करेगे। उसे बहुत भुख और प्यास भी लग रही थी।

उसने किसी की आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबा उसकी ओर आ रहा है। वह सन्यासी बाबा उस के पास आया और पास में बैठ गया। पूछा - बेटा कहाँ से आये हो ? उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा आना यहाँ पर व्यर्थ हो गया बाबा जी।

बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबा उससे बाते करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।

बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा, किन्तु वह कहीं नहीं थे ।

इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ।

उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला - कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये।

पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा - तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए !

उस आदमी ने आश्चर्य से कहा - नही, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।

उन्होंने कहा - लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ।

तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रह सकते हो ? पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक जिन्दा रह सकता है।

तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गयी सारी बाते बता दी। कि एक सन्यासी आया था - लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था।

पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो।

तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किये है। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया।

यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विश्वास के कारण ही हुआ है। आपकी भक्ति को प्रणाम।
   ❤ हर हर महादेव ❤
   🌺 ॐ नमः शिवाय  🌺

Saturday 18 May 2019

*माँ गंगा से जुड़े कुछ रोचक तथ्य* 🌊🌊

*भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में क्यों बांधा?*
*माँ गंगा  से जुड़े कुछ रोचक तथ्य* 🌊🌊

👉 *पवित्र गंगा नदी* :-
गंगा, जाह्नवी और भागीरथी कहलानी वाली ‘गंगा नदी’ भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में से एक है। यह मात्र एक जल स्रोत नहीं है, बल्कि भारतीय मान्यताओं में यह नदी पूजनीय है जिसे ‘गंगा मां’ अथवा ‘गंगा देवी’ के नाम से सम्मानित किया जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार गंगा पृथ्वी पर आने से पहले सुरलोक में रहती थी।

👉 *गंगा का पृथ्वी पर आना* :-
तो क्या कारण था जो यह पवित्र नदी धरती पर आई। इसे यहां कौन लाया? गंगा नदी के पृथ्वी लोक में आने के पीछे कई सारी लोक कथाएं प्रचलित हैं, लेकिन इस सबसे अहम एवं रोचक कथा है पुराणों में। एक पौराणिक कथा के अनुसार अति प्राचीन समय में पर्वतराज हिमालय और सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना की अत्यंत रूपवती एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएं थीं।

👉 *पर्वतराज हिमालय की पुत्री गंगा* :-
दो कन्याओं में से बड़ी थी गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम था उमा। कहते हैं बड़ी पुत्री गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवीय गुणों से सम्पन्न थी। लेकिन साथ ही वह किसी बन्धन को स्वीकार न करने के लिए भी जानी जाती थी। हर कार्य में अपनी मनमानी करना उसकी आदत थी।

👉 *देवता उसे सुरलोक ले गए* :-
हिमालय से बेहद ऊंचाई पर सुरलोक में रहने वाले देवताओं की दृष्टि गंगा पर पड़ी। उन्होंने उसकी असाधारण प्रतिभा को सृष्टि के कल्याण के लिए चुना और उसे अपने साथ स्वर्गलोक ले गए। अब पर्वतराज के पास एक ही कन्या शेष थी, उमा। उमा ने भगवान शिव की तपस्या की और तप पूर्ण होने पर भगवान शंकर को ही वर के रूप में मांग लिया।

👉 *उमा और शिव का विवाह* :-
इस तरह से दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ। शिव और उमा के विवाह के वर्षों बाद भी दोनों को सन्तान प्राप्ति ना हुई। एक दिन भगवान शिव के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। जब उनके इस विचार की सूचना सृष्टि के रचनाकर ब्रह्मा जी तक पहुंची तो उनके सहित सभी देवता चिंता में पड़ गए।

👉 *कार्तिकेय का जन्म* :-
उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि महादेव जैसे अत्यंत तेजस्वी देव के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? इसका जवाब उन्हें स्वयं भगवान शंकर के अलावा कोई नहीं दे सकता था। तो सभी अपनी पुकार लेकर उनके पास पहुंच गए। उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ।

👉 *गंगा और उमा* :-
देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई। गंगा ने उमा को बताया कि अब वह सुरलोक में और नहीं रहना चाहती और अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर जाना चाहती हैं।

👉 *राजा सगर और दो रानियां*  :-
वहां सगर नाम के एक राजा थे जिनकी कोई सन्तान नहीं थी। सगर राजा की दो रानियां थी - केशिनी तथा सुमति, किन्तु दोनों से ही राजा को पुत्र की उत्पत्ति नहीं हो रही थी। जिसके फलस्वरूप उन्होंने दोनों पत्नियों को साथ लेकर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में तपस्या करने का फैसला किया।

👉 *पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या* :-
एक लंबी तपस्या के बाद महर्षि भृगु राजा और उनकी पत्नियों से प्रसन्न हुए और वरदान देने के लिए प्रकट हुए। उन्होंने कहा, “हे राजन! तुम्हारी तपस्या से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं और तुम्हारी दोनों पत्नियों को पुत्र का वरदान देता हूं। लेकिन दोनों में से एक पत्नी को केवल एक पुत्र की प्राप्ति होगी, जो वंश को आगे बढ़ाने में सहायक साबित होगा। तथा दूसरी पत्नी को 60 हज़ार पुत्रों का वर हासिल होगा। अब तुम यह फैसला कर लो कि किसे कौन सा वरदान चाहिए।“

👉 *वंश बढ़ाने वाले पुत्र का जन्म* :-
इस पर राजा की पहली पत्नी केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और रानी सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की। उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। दूसरी ओर रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसे फोड़ने पर कई सारे छोटे-छोटे पुत्र निकले, जिनकी संख्या साठ हजार थी। उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया।

👉 *असमंजस को नगर से निकाला* :-
समय बीतने पर सभी पुत्र बड़े हो गए। महाराज सगर का ज्येष्ठ एवं वंश को आगे बढ़ाने वाला पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था। उसके कहर से सारी प्रजा परेशान थी, इसीलिए परिणामस्वरूप राजा ने उसे नगर से बाहर कर दिया। कुछ समय बाद असमंजस के यहां अंशुमान नाम का एक पुत्र हुआ। वह अपने पिता से बिल्कुल विपरीत स्वभाव का था।

👉 *असमंजस का पुत्र अंशुमान* :-
अंशुमान अत्यंत सदाचारी, पराक्रमी एवं लोगों की सहायता करने वाला था। एक दिन राजा सगर ने महान अश्वमेघ यज्ञ करवाने का फैसला किया जिसके लिए उन्होंने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि को चुना और वहां एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। इसके बाद अश्वमेघ यज्ञ के लिए श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया।

👉 *राजा सगर का अश्वमेघ यज्ञ* :-
यज्ञ सफलतापूर्वक बढ़ रहा था जिसे देख इन्द्र देव काफी भयभीत हो गए। तभी उन्होंने एक राक्षस का रूप धारण किया और हिमालय पर पहुंचकर राजा सगर के उस घोड़े को चुरा लिया। घोड़े की चोरी की सूचना पाते ही राजा सगर के होश उड़ गए। उन्होंने शीघ्र ही अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को किसी भी अवस्था (जीवित या मृत) में पकड़कर लेकर आओ।

👉 *इन्द्र ने चोरी किया घोड़ा* :-
आदेश सुनते ही सभी पुत्र खोजबीन में लग गए। जब पूरी पृथ्वी खोजने पर भी घोड़ा नहीं मिला तो उन्होंने पृथ्वी को खोदना शुरू कर दिया, यह सोच कर कि शायद पाताल लोक में उन्हें घोड़ा मिल जाए। अब पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुंच गए।

👉 *कपिल मुनि का आश्रम*:-
वहां उन्होंने देखा कि कपिलमुनि आंखें बन्द किए बैठे हैं और ठीक उनके पास यज्ञ का वह घोड़ा बंधा हुआ है जिसे वह लंबे समय से खोज रहे थे। इस पर सभी मंदबुद्धि पुत्र क्रोध में कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उन्हें अपशब्द कहने लगे। उनके इस कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। आंखें खुलती ही उन्होंने क्रोध में सभी राजकुमारों को अपने तेज से भस्म कर दिया। लेकिन इसकी सूचना राजा सगर को नहीं थी।

👉 *पुत्रों को भस्म कर दिया*:-
जब लंबा समय बीत गया तो राजा फिर से चिंतित हो गए। अब उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिए आदेश दिया। आज्ञा का पालन करते हुए अंशुमान उस रास्ते पर निकल पड़ा जो रास्ता उसके चाचाओं ने बनाया था। मार्ग में उसे जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिलते वह उनका सम्मानपूर्वक आदर-सत्कार करता। खोजते-खोजते वह कपिल आश्रम में जा पहुंचा।

👉 *सभी पुत्र मरे हुए थे* :-
वहां का दृश्य देख वह बेहद आश्चर्यचकित हुआ। उसने देखा कि भूमि पर उसके साठ हजार चाचाओं के भस्म हुए शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। यह देख वह निराश हो गया। अब उसने राख को विधिपूर्वक प्रवाह करने के लिए जलाशय खोजने की कोशिश की लेकिन उसे कुछ ना मिला। तभी उसकी नजर अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी।

👉 *उद्धार के लिए गंगा जल जरूरी* :-
उसने गरुड़ से सहायता मांगी तो उन्होंने उसे बताया कि किस प्रकार से कपिल मुनि द्वारा उसके चाचाओं को भस्म किया गया। वह आगे बोले कि उसके चाचाओं की मृत्यु कोई साधारण नहीं थी इसीलिए उनका तर्पण करने के लिए कोई भी साधारण सरोवर या जलाशय काफी नहीं होगा। इसके लिए तो केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करना सही माना जाएगा।

👉 *राजा सगर का देहान्त* :-
गरुड़ द्वारा राय मिलने पर अंशुमान घोड़े को लेकर वापस अयोध्या पहुंचा और राजा सगर को सारा वाकया बताया। राजा काफी दुखी हुए लेकिन अपने पुत्रों का उद्धार करने के लिए उन्होंने गंगा को पृथ्वी पर लाने का फैसला किया लेकिन यह सब होगा कैसे, उन्हें समझ नहीं आया। कुछ समय पश्चात् महाराज सगर का देहान्त हो गया जिसके बाद अंशुमान को राजगद्दी पर बैठाया गया।

👉 *अंशुमान बने राजा* :-

आगे चलकर अंशुमान को दिलीप नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। उसके बड़े होने पर अंशुमान ने उसे राज्य सौंप दिया और स्वयं हिमालय की गोद में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने लगे। उनके लगातार परिश्रम के बाद भी उसे सलता हासिल ना हुई और कुछ समय बाद अंशुमान का देहान्त हो गया। अंशुमान की तरह ही उसके पुत्र दिलीप ने भी राज्य अपने पुत्र भगीरथ को सौंपकर गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या शुरू कर दी।

👉 *गंगा जल के लिए तपस्या* :-
लेकिन उन्हें भी कोई फल हासिल ना हुआ। दिलीप के बाद भगीरथ ने भी गंगा तपस्या का फैसला किया लेकिन उनकी कोई संतान ना होने के कारण उन्होंने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर हिमालय जाने का फैसला किया। उनकी कठोर तपस्या से आखिरकार भगवान ब्रह्मा प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हुए और मनोवांछित फल मांगने के लिए कहा।

👉 *भगवान ब्रह्मा प्रकट हुए* :-
भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा, “हे प्रभु! मैं आपके दर्शन से अत्यंत प्रसन्न हूं। कृपया आप मुझे सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिए गंगा का जल प्रदान कर दीजिए तथा साथ ही मुझे एक सन्तान भी दें ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो जाए।“ भगीरथ की प्रार्थना सुन ब्रह्मा जी मुस्कुराए और बोले, “हे वत्स! मेरे आशीर्वाद से जल्द ही तुम्हारे यहां एक पुत्र होगा किन्तु तुम्हारी पहली मांग गंगा का जल देना, यह मेरे लिए कठिन कार्य है। क्योंकि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगी तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी।

👉 *भगवान शिव की तपस्या* :-
ब्रह्मा जी आगे बोले, “यदि गंगा के वेग को संभालने की किसी में क्षमता है तो वह हैं केवल महादेव जी। इसीलिए तुम्हें पहले भगवान शिव को प्रसन्न करना होगा।“ यह बोल ब्रह्मा जी वापस ब्रह्म लोक की ओर प्रस्थान कर गए। उनके जाते ही अगले एक वर्ष तक भगीरथ ने पैर के अंगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या की। इस दौरान उन्होंने वायु के अलावा अन्य किसी भी चीज़ का ग्रहण नहीं किया।

👉 *शिव प्रसन्न हुए*:-
उनकी इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव जी ने उन्हें दर्शन दिए और बोले, “हे परम भक्त! तुम्हारी भक्ति से मैं बेहद प्रसन्न हुआ। मैं अवश्य तुम्हारी मनोकामना को पूरा करूंगा, जिसके लिए मैं अपने मस्तक पर गंगा जी को धारण करूंगा।“ इतना कहकर भगवान शिव वापस अपने लोक चले गए। यह सूचना जब गंगा जी तक पहुंची तो वह चिंतित हो गईं, क्योंकि वह सुरलोक छोड़ कहीं जाना नहीं चाहती थीं।

👉 *शिव जानते थे गंगा की योजना* :-
उन्होंने योजना बनाई कि वह अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाएंगी। परिणामस्वरूप गंगा जी भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं लेकिन शिव जी गंगा की मंशा को समझ चुके थे। गंगा को अपने साथ बांधे रखने के लिए महादेव जी ने गंगा धाराओं को अपनी जटाओं में धीरे-धीरे बांधना शुरू कर दिया। अब गंगा जी इन जटाओं से बाहर निकलने में असमर्थ थीं। गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की।

👉 *हिमालय पर्वत पर छोड़ा गंगा जी को* :-
भगीरथ के इस तपस्या से शिव जी फिर से प्रसन्न हुए और आखिरकार गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ दिया। छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बंट गईं। इन धाराओं में से पहली तीन धाराएं ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। अन्य तीन सुचक्षु, सीता और सिन्धु धाराएं पश्चिम की ओर बहीं और आखिरी एवं सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे-पीछे चल पड़ी। महाराज जहां भी जाते वह धारा उनका पीछा करती !

👉 *ऋषि जह्नु ने पिया सारा गंगा जल* :-
एक दिन गलती से चलते-चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुंचीं जहां ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। गंगा जी बहते हुए अनजाने में उनके यज्ञ की सारी सामग्री को अपने साथ बहाकर ले गईं, जिस पर ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे।

👉 *ऋषि जह्नु के कानों से बही गंगा* :-
अंत में ऋषि जह्नु ने अपने कानों से गंगा जी को बहा दिया और उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जी का नाम जाह्नवी भी पड़ा। इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते-चलते उस स्थान पर पहुंचीं, जहां उसके चाचाओं की राख पड़ी थी। उस राख का गंगा के पवित्र जल से मिलन होते ही सगर के सभी पुत्रों की आत्मा स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर गई।
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Tuesday 14 May 2019

👉 *राम को समझिए*

"राम" अत्यन्त विलक्षण शब्द है । साधकों के द्वारा "बीज मन्त्र" के रूप में "राम" का प्रयोग अनादि काल से हो रहा है और न जाने कितने साधक इस मन्त्र के सहारे परमपद च्राप्त कर चुके हैं । आज "राम" कहते ही दशरथ - पुत्र धनुर्धारी राम का चित्र उभरता है परन्तु "राम" शब्द तो पहले से ही था । तभी तो गुरु वशिष्ठ ने दशरथ के प्रथम पुत्र को यह सर्वश्रेष्ठ नाम प्रदान किया । धार्मिक परम्परा में "राम" और "ओऽम्" प्रतीकात्मक है और "राम" सार्थक । राम शब्द में आखिर ऐसा क्या है ? इस प्रश्न का यही उत्तर हो सकता है कि "राम" में क्या नहीं है ?

थोड़ा सा विचार करिए । "राम" तीन अक्षरों से मिलकर बना है । "र" + "अ" + "म" "राम" के इन तीन घटक अक्षरों को { 6 } छः प्रकार से व्यवस्थित किया जा सकता है ।

"र" + "अ" + "म" = राम
"र" + "म" + "अ" = रमा
"म" + "अ" + "र" = मार { कामदेव }
"म" + "र" + "अ" = मरा
"अ" + "म" + "र" = अमर
"अ" + "र" + "म" = अरम

उपरोक्त प्रकार देखने से स्पष्ट हो जाता है कि इन तीन अक्षरों में सृष्टि की उत्पत्ति सृजन प्रसार और विलय सब समाया हुआ है . और इतना ही नहीं यह भी प्रकट हो जाता है कि प्रत्यक्षतः विरोधाभासी दिखनेवाले सब एक ही हैं । मायावश ही उनके विरोध का आभास होता है ।

विस्तार से देखें - जो "राम" पुरुष हैं वही "रमा" अर्थात् स्त्री प्रकृति है । "राम" पुरुष रूप में सारी विश्व - ब्रह्माण्ड सृष्टि का कारण है , आक्रमक बल है। वही "रमा" स्त्री प्रकृति के रूप में संग्राहक है सृजन की निर्माणकर्ता है । राम पुरु बल प्रधान है , "रमा" संवेदना प्रधान । "राम" बुद्धि प्रधान है , विश्लेषणात्मक है। रमा भावना प्रधान है , संश्लेषणात्मक है ।

बुद्धि मार्ग निर्देश करती है , भावना { "चित्त" } स्थायित्व प्रदान करती है । सृजन के ये दो आधार हैं । लेकिन जब तक "राम" और "रमा" अलग - अलग रहें सृजन असम्भव है । दोनों नदी के दो पाट हैं । इनको संयुक्त करता है "म" + "अ" + "र" = मार या काम । भगवान् बुद्ध द्वारा "मार विजय" की बड़ी प्रशस्ति है , ऋषियों द्वारा काम विजय हमेशा एक आदर्श रहा , "नारद मोह" का पूरा आख्यान अत्यन्त सारगर्भित है किन्तु "मार" है , तभी उसके परे जाकर परमपद या "एकत्व" प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा राम और रमा , मार द्वारा संयुक्त होकर सृष्टि को फैलाते ही जाएँगे ।

पुरुष और प्रकृति अलग - अलग नहीं हैं और न उनके परस्पर सम्बन्ध की ही कोई स्वतन्त्र सत्ता है । जो "राम" है वही "रमा" है और वही "मार" है ।

नारायण ! अब दूसरा युग्म लें । जो "अमर" है वही "मरा" है । अर्थात् तात्विक दृष्टि से देखें तो अमरत्व और मरणधर्मिता , शाश्वता और क्षणभंगुरता अलग - अलग नहीं हैं । जो क्षणभंगुर दिखाई देता है , जो सतत परिवर्तनशील दिखाई देता है , वही अमर है , शाश्वत है । मृत्यु और परिवर्तन तो आभास मात्र है , बुद्धि के द्वारा उत्पन्न भ्रम है । मृत्यु होती ही नहीं ।

मृत्यु से बड़ा कोई झूठ नहीं । फिर भी अज्ञान की अवस्था में मृत्यु से बड़ा कोई "सत्य" नहीं । अज्ञान की दशा में जो मृत्यु है वही ज्ञान की स्थिति में अमरत्व है । जब तक मृत्यु वास्तविकता लग रही है तब तो "मरा" ही है वह जीवित ही कहाँ ? जीवन के प्रवाह के ये दो पक्षों के मूल सत्य , मृत्यु और अमरत्व , "अमर" और "मरा" "राम" में ही निहित हैं ।

और साथ ही यह यथार्थ भी कि दोनों एक साथ सदैव उपस्थित हैं । प्रत्येक वस्तु का चरम यथार्थ शाश्वत , नित्य , अपरिवर्तनशील , अमर , अनादि और अनन्त है जब कि उसका आभासी स्वरूप या विवर्त क्षणभंगुर , अनित्य , सतत परिवर्तनशील , मरणधर्मा और समित है ।

नारायण ! अब छठा शब्द बनता है "अ" + "र" + "म" = अरम अर्थात् जिसमें रमा न जा सके । वड़ी विचित्र बात लगती है कि जिसे विद्वान् , गुणी जन कहते है कि सब में "रमा" है व "अरम" कैसे हो गया ? विद्वान् और "सिद्ध" में यही भेद है । विद्वान् "उसे" देखता है और समझने की चेष्टा करता है । सिद्ध उसे अनुभव करता है और , उसके साथ एकाकार हो जाता है । बाबा तुलसीदासजी ने गाया है -"जानत तुमहिं , तुमहिं होय जाई" ।

अह ह ह ! बूँद सागर में गिरी तो स्वयं सागर हो गई । जब बून्द बची ही नहीं तो रमेगा कौन ? वह परासत्ता , वह चरम वास्तविकता , वह परब्रह्म तो "अरम" ही हो सकता है ।

इस प्रकार हम देखते है कि जो कुछ भी जानने योग्य है , जो कुछ भी मनन योग्य है , वह सब "राम" शब्द में अन्तर्निहित है । योगियों और सिद्ध गुरुजनों ने संकेत दिया है कि "ज्ञान" बाहर से नहीं लिया या दिया जा सकता । यह तो अन्दर से प्रस्फुटित होता है । आत्मा "सर्वज्ञ" है साधना के प्रभाव से किसी भी शब्द में निहित सारे अर्थ स्वयं प्रकट हो जाते हैं ।

रामचरितमानसकार कहते है – "सोइ जाने जेहि देहु जनाई" ।

इस विराट् अर्थवत्ता के कारण ही "राम : नाम " महामन्त्र है और उसके अनवरत जप से कालान्तर में उसमें निहित सार , अर्थ और सृष्टि के सारे रहस्य स्वतः प्रकट होकर साधक को जीवन्मुक्त का परमपद प्रदान करते हैं।
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🎋🌿🌾 *देवी माँ का नौवां स्वरूप- सिद्धिदात्री* 🌾🌿🎋

 🌿🌿🌾 *नौवां नवरात्रा* 🌾🌿🌿 🎊🎊🎉☀ *आओ  माता* ☀🎉🎊🎊 🎋🌿🌾 *देवी माँ का नौवां स्वरूप- सिद्धिदात्री* 🌾🌿🎋         👉 *शारदीय नवरात्र...